नई दिल्ली/नगर संवाददाताः किसानों की कर्ज माफी राज्य सरकारों के लिए सिरदर्द बन गई है। किसानों के देशव्यापी असंतोष से निबटने के लिए यदि राज्य सरकारें कृषि कर्ज माफी का रास्ता चुनती हैं तो सरकारी खजाने पर तीन लाख दस हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ आएगा तथा सेठ साहूकारों से कर्ज लेने वाले देश के दो करोड़ 21 लाख सीमांत किसानों को इसका कोई फायदा नहीं मिलेगा। सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र से जुड़े मुद्दों का अध्ययन करने वाली गैर सरकारी संस्था ‘इंडियास्पेंड’ की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इसके अनुसार उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र सरकारों के क्रमश: 36,359 करोड़ और 30 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी घोषणा के साथ ही पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में भी किसानों ने कर्ज माफी की मांग तेज कर दी है। सरकारें अगर इस मांग को मान लेती हैं तो भी किसानों की समस्या का स्थायी समाधान नहीं होगा। इसके बावजूद इस मुद्दे को अगर हवा मिल रही है तो यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर इसकी वजह क्या है? यह ठीक है कि देश में सचमुच कोई सबसे ज्यादा मेहनत करता है तो वह किसान है। उसकी मुसीबत सिर्फ यह नहीं है कि वह मौसम की अचानक मार ङोलता है बल्कि यह भी है कि सब कुछ ठीक होने पर भी उसकी उपज कई बार उसे कौड़ियों के मोल बेचनी पड़ती है या जानवरों को खिलानी पड़ती है। कर्ज में दबा किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसे में किसान आंदोलन न करे तो क्या करेगा?आज भले ही हम दावा करें कि हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में आने वाला है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग खेती-किसानी का काम कर्ज की मदद से ही कर रहे हैं। किसानों के लिए खेती जीवन मरण का प्रश्न है। इसके बावजूद सरकार को जितना कृषि पर ध्यान देना चाहिए उतना नहीं दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि सिर तक कर्ज में डूबा किसान सरकार से कर्ज माफी के लिए आंदोलन पर उतारू है। केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह समझना होगा कि इस प्रतिबद्धता पर किसान इसलिए भरोसा नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपनी उपज का उचित मूल्य हासिल नहीं हो रहा है। खैर, हमारे यहां राजनीतिक पार्टियों को अपने इन ‘अन्नदाताओं’ की याद तभी आती है जब चुनाव सिर पर आते हैं, क्योंकि देश का सबसे बड़ा वोट बैंक भी यही हैं, लेकिन सत्ता की चाभी हाथों तक पहुंचते ही देश की सबसे बड़ी साधनहीन आबादी को उसकी तकदीर पर छोड़ दिया जाता है। यू कहें आज भी भारतीय किसान वादों-बयानों और घोषणाओं की उम्मीदों के सहारे जीने पर मजबूर है। दरअसल, भारत में अधिकतर किसानों के लिए खेती करने के सिवा कोई चारा नहीं है। उनके पास एकमात्र संपत्ति जमीन है, उनके पास एकमात्र कौशल खेती करना है, और अगर वे इसे नहीं करेंगे तो उनमें से बहुतों के सामने भुखमरी की नौबत आ जाएगी। देश के कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा गिरते जाने के बावजूद यह रोजगार का सबसे बड़ा स्नोत है। भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि को प्रमुखता हासिल है। फिर भी भारत में सबको अन्न देने वाला भूखा मर रहा है। आजादी के बाद सारी विकास की योजनाएं शहरों को केंद्र में रखकर की गईं और किसान तथा कृषि प्रधान देश का नारा संसद तक सीमित रहा। आज भी सरकार का सारा फोकस शहरी विकास पर केंद्रित है। कृषि अर्थव्यवस्था तो अब सारी बाजार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास चली गई है। देखते-देखते सारे किसान अपनी भूमि पर गुलाम हो गए। आखिर क्या कारण हैं जो किसान खेती से बाहर आना चाहते हैं? इस पर विचार होना ही चाहिए। बहरहाल, अगर 130 करोड़ जनता को अन्न चाहिए तो अन्नदाता को गांव में रोकना होगा, उसे बेहतर जीने का अवसर देना होगा, जैसा दुनिया के विकसित राष्ट्र अपने किसानों को देते हैं वैसी व्यवस्था लानी ही होगी। देश की सियासत में गरीबी हटाने की बात सबसे मजबूत और असरदार टूल साबित होता आया है। यह शब्द कभी इंदिरा गांधी की राजनीतिक का ब्रह्मास्त्र रहा और हाल फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी किसी न किसी रूप में इसका जिक्र करते रहे हैं। बहरहाल, किसान की सबसे बड़ी समस्या सिर्फ कर्ज नहीं है।
राज्य सरकारों के लिए सिरदर्द बन गई है किसानों की कर्ज माफी
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