वास्तु और आपका घर

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भवन बनकर तैयार हो जाता है तो वह पंचभूत का रूप धारण कर लेता है। ईटो, मिट्टी, सीमेन्ट वगैरह से जब भवन बनकर तैयार हो जाता है तो लोग इसे निर्जीव समझते है लेकिन उनकी यह विचार धारा गलत है। दीवारे भी बाते करती है और सांस लेती है तभी तो कभी कोई गुप्त बात करनी हो तो लोग कहते है कि धीरे बात करें क्योंकि दीवारों के भी कान होते है। इन बातों से सिद्ध होता है कि हमारे पूर्वजों ने इस लकोक्ति को बनाते वक्त वास्तु शास्त्र का अध्ययन किया था। जो भी कर्म हम करते है उसका असर हमारे साथ-साथ, हमारे रहने वाले स्थान पर भी पड़ता है, क्योंकि पंचभूत हर इन्सान की देह(शरीर) मे विद्यमान है। मनुष्यों एवं बह्याण्ड की रचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई है। यह पंचभूत है-पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु। हर स्त्री पुरूष के जीवन मे इनका बहुत महत्व है प्रकृति के विरूद्ध काम करने से इनका सन्तुलन बिगड़ जाता है और हमारी ऊर्जाएं गलत दिशांए अपना लेती है, जिससे अस्वस्थता पैदा होकर हमारे दिमागी व शारीरिक संतुलन को बिगाड़ देती है, और बैचेनी, तनाव अशान्ति इत्यादि को पैदा कर देती है। इसी तरह जब मनुष्य प्रकृति से छेड़छाड करता है तो उसका संन्तुलन बिगड़ जाता है तब तूफान, बाढ़, अग्निकांड तथा भूकम्प आदि अपना तांडव दिखाते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि पंच तत्वों का सन्तुलन बनाए रखा जाए ताकि हम शान्तिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। जैसे कि ऊपर कहा गया है कि भवन निर्माण के बाद यह पंच तत्व गृह मे रहने लगते है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इन सबका सही सन्तुलन बना रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास करने वाला मानव सुख-शान्ति से नहीं रह पाएगा। उसे सदैव अशान्ति, कलेश, आर्थिक तंगी, रोग तथा मानसिक द्वंद आदि समस्याएं हमेशा घेरे रहेगी। इन पंच तत्वों को जानने के लिए हमें इनके बारे मे अलग-अलग समझना होगा कि यह क्या है और इनका मनुष्य व ब्रह्याण्ड पर किस प्रकार असर पड़ता है। पंच तत्वों का संक्षेप से वर्णन इस प्रकार है।
1. पृथ्वी
पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों मे से एक है। सूर्य के अंश से टूटकर यह लाखों वर्ष पूर्व उसका प्रादुर्भाव हुआ था। कहते है कि अन्य ग्रह भी इसी प्रकार उत्पन्न हुए थे। सूर्य से टूटने के बाद यह उसके इर्द-र्गिद चक्कर काटने लगे और धीरे-धीरे यह सूर्य से दूर हो गए। इसी प्रकार पृथ्वी भी सूर्य से दूर हो गई और धीरे-धीरे ठंडी हो गई। पृथ्वी पर लम्बे समय तक रसायनिक क्रियाओ के फलस्वरूप प्राकृतिक स्थलों, पर्वतों, नदियों व मैदानों आदि का जन्म हुआ। पृथ्वी सूर्य के गिर्द चक्कर काटने के साथ-साथ अपनी धुरी पर भी 23 डिग्री मे घूम रही हैं। यहां पानी, गुरूत्वाकर्षण शक्ति तथा दक्षिणोत्तर धु्रवीय तरंगे पृथ्वी की सभी जीव-निर्जीव वस्तुओं को प्रभावित करती है। पृथ्वी ही जीवनदायिनी है और पालनहार है। पृथ्वी की इसी ममतामयी छवि के कारण भवन निर्माण का कार्य इस पर होता है, क्योंकि भूमि के बिना भवन निर्माण नही हो सकता। कहने का तात्पर्य कि भवन निर्माण कार्य मे भूमि के महत्व को अनदेखा नही किया जा सकता तभी तो भारतीय प्राचीन ग्रन्थों मे पृथ्वी की महत्ता को ‘माता’ जैसे शब्दो से सम्बोधित किया गया है और भूमि पर किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व पूजा का विधान रखा गया है।
2. जल
जल ही जीवन है इसमे मे कितनी सच्चाई है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी सजीव या निर्जीव वस्तु का अस्तित्व ‘जल’ के बिना नही रह सकता और वह जल्द समाप्त हो जाती है। जीवन का कारण ही जलचक्र है। सागर, नदियों, नहरों, तालाबो इत्यादि का जल वाष्प बनकर आकाश मे चला जाता है और बादल के रूप मे आकर वर्षा बनकर जल के रूप में फिर से धरती पर आ जाता है। इसी से जीवन कायम है। यह तो विज्ञान भी मानता है कि जल मे एक अंश प्राणवायु (ऑक्सीजन) का भी होता है जोकि इन्सान के खून मे मिलकर नसो मे दौड़ता है और उसे जीवन देता है। जल तीन रूपों मे मिलता है जैसे ठोस (वर्षा) तरल व गैस (भाप एवं बादल)। आम तौर पर जल व अग्नि की जरूरत पड़ती है। यह पांचो महाभूत अलग अलग हो तो यह किसी काम के नही और अगर इन्हे एक रूप कर दिया जाए तो जीवन की एक अनुपम रचना बन सकती है।
इतिहाकारों का मानना है कि विश्व की महान सभ्यताएं जल के किनारे ही पली-बढ़ी व जल का ही ग्रास बन गई। अतः पृथ्वी के संचालन के लिए जल अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तुशास्त्र के मुताबिक जल को मुख्य तत्व में रखा जाना चाहिए और निर्माण सामग्री मे इसके सन्तुलन को ध्यान मे रखना जरूरी है।
3. अग्नि
अग्नि व तेल यह ऊर्जा के स्त्रोत हे और बिना ऊर्जा के जीवन का कोई आधार नही है। ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत सूर्य है जिसके तेज से ही जीवन प्रकाशमान है। तेज को किसी भी मनुष्य के असाधारण गुण के रूप मे देखा जाता है। पर्यावरण मे व्याप्त वायुकण, धूल और बादल अपनी चुम्बकीय शक्ति के कारण एक दूसरे की ओर आकर्षित होते रहते है। इसी कारण इनके सिमटने और फैलने की क्रिया होती है जिसके बल से ऊर्जा पैदा होती है और यही ऊर्जा अग्नि है। अग्नि का मनुष्य की रोजमर्रा की जिन्दगी मे बहुत महत्व है जैसे भोजन इत्यादि पचाना व प्रकाश करना। हिन्दु संस्कृति के अनुसार धार्मिक कार्यक्रम मे भी अग्नि का बहुत महत्व है। जैसे यज्ञ, हवन, विवाह, संस्कार व अन्य कर्मकांड अग्नि के बिना अधूरे गिने जाते है। अग्नि को प्रचण्ड रूप मे भी देखा जा सकता है। जब यह देखते ही देखते बड़े-बड़े महलों व ऊंचे-ऊंचे भवनों को धूल मे मिला देती है। भारतीय शास्त्रो मे कहा गया है कि अग्नि मनुष्य के साथ जन्म से लेकर मरण तक रहती है और यह चिरन्तन सत्य है। अग्नि सत्य एवं अविनाशी है और मनुष्य जीवन के हरएक पहलू से जुड़ी है। इसे वास्तु मे भी बहुत महत्व दिया गया है।
4. वायु
चलते फिरते मनुष्य के जीवन मे वायु का बहुत महत्व है, जो कि श्वसन क्रिया से सम्बन्धित है। जब यह सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है। प्राणी ही नही पेड़ पौधे भी वायु के बिना क्षीण होकर समाप्त हो जाते है। मतलब यह कि वायु का संतुलन सृष्टि की रचना व स्थायित्व मे योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। पृथ्वी पर वायु मण्डल का दायरा लगभग 400 कि.मी. है, जिसमें विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है। मनुष्य जीवन के लिए दो गैसों आक्सीजन और हाईड्रोजन का बहुत महत्व है क्योंकि यही दोनो गैसें जल का कारक है और उससे मनुष्य का शरीर संचालित है। अगर इसमे कमी आ जाए तो मनुष्य को चमड़ी व खून के दबाव इत्यादि रोगों का सामना करना पड़ सकता है। मनुष्य की प्रत्येक क्रिया मे कहीं न कहीं पंच महाभूतों का सम्मिश्रण अवश्य पाया जाता है। यह मिश्रण किसी और ग्रह पर नही है तभी तो वहां जीवन संभव नही हो पाया है। वस्तुतः वायु मानव के लिए अन्य शक्तियों का अमूल्य उपहार है। वास्तु द्वारा वायु को इतनी पहल इसलिए दी गई है कि यह निर्माण कार्य को बहुत हद तक प्रभावित करती है।
5. आकाश
आकाश अनन्त असीम व अथाह है। यह ऊर्जा की तीव्रता, प्रकाश लौकिक किरणों, विद्युतीय व चुम्बकीय शक्तियों का प्रतीक है। यह अपने अन्दर एक आकाश गंगा नहीं बल्कि असीम आकाश गंगाए समाएं हुए हैं, जिनमें हमारे सूर्य जैसे सैकड़ों सूर्य चमक रहे है। सभी ग्रह-उपग्रह अपनी स्थिति एवं समयानुसार इसमे परिक्रमा कर रहे है। हमारे जीवन मे समृद्धि व आनन्द लाने मे आकाश का महत्वपूर्ण स्थान है।
यदि इन्सान अपनी जिन्दगी मे सुख, समृद्धि व आनन्द पाना चाहता है तो उसे पंच महाभूतों को यथोचित सम्मान देना चाहिए ताकि वह अपने जीवन मे अरोग्यता, शान्ति, समृद्धि व उन्नति प्राप्त कर सके।

पंच भूतों का गृह में स्थानः- जैसा कि आपको पहले बताया है कि सारा ब्रह्माण्ड पंच तत्वों से बना हुआ है और वैसे ही इन पंच तत्वों का भवन में कहां पर निवास है यह नीचे बताया गया है।
1.जलः- जल का स्थान उत्तर पूर्व दिशा मे बताया गया है। जल का भूमिगत भण्डारण, कुआं इत्यादि पूर्व उत्तर दिशा में होना चाहिए ताकि सूर्य की सुबह की किरणे इस पर पड़े और द्घातक कीटाणु नष्ट हो जाएं। इस तरफ जल का भण्डार होने से गृह स्वामी को खुशी व समृद्धि प्राप्त होती है।
2.अग्निः- अग्नि का स्थान दक्षिण पूर्व मे है। इसलिए रसोई का स्थान इस दिशा में होना चाहिए। अग्नि को जलाते समय मनुष्य का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। इससे द्घर में खुशी व समद्धि रहती है और मनुष्य का मन शान्त रहता है।
3.भूमिः- भवन के दक्षिण पश्चिम भाग को सख्त माना गया है इसलिए इस दिशा को भूमि की संज्ञा दी गई है। कहते हैं कि यह दिशा जितनी ऊंची होगी गृह स्वामी का उतना ही अधिक मान सम्मान होगा और वह समाज मे बहुत ऊंचा दर्जा प्राप्त करता है।
4.वायुः-वायु का स्थान उत्तर-पश्चिम में माना गया है। इसलिए भवन के दरवाजे, खिडकियां इत्यादि इसी दिशा में बनवाने की सलाह दी जाती है। ताकि द्घर में पर्याप्त वायु प्रवेश करें और द्घर में रहने वालों को पूर्ण रूप से वायु मिले। अगर इस दिशा में वायु का प्रवाह बिना रूकावट मिले तो ऐसे भवन के स्वामी को हमेशा खुशी मिलेगी और व्यापार मे तरक्की एवं अच्छे मित्र मिलेंगें जो सुख दुख के साथी होगें।
5.आकाशः- आकाश का सम्बन्ध भवन के बीच के स्थान को दिया जाता है। भवन निर्माण करते समय बीच वाले स्थान को खाली छोड़ देना चाहिए। इसे बहा स्थान भी कहा जाता है। यह स्थान आकाश से सीधा दिखाई देना चाहिए। इसके बीच मे बीम इत्यादि या रूकावट नहीं होनी चाहिए। छोटे भवनों वाले इस तरह का स्थान नही बना सकते परन्तु उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि भवन के बीच का स्थान खाली रहे चाहे तो समतल ही रहनें दे। कोई भी भारी सामान बना रहता है और धर्म कर्म के अभिरूचि बनी रहती है।

दिशाओं का महत्वः वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे उतना ही महत्व है जितना कि पंच तत्वों का है। दिशांए कौन-कौन सी है और उनके स्वामी कौन-कौन से है यह नीचे दिए जा रहे हैं। कहते हैं कि दिशा व्यक्ति की दशा बदल देती है। यह बात वास्तुनुरूप बने भवन पर पूर्ण रूप से सत्य साबित होती है। यदि किसी भवन निर्माण का दिशाओं के बिना ध्यान रखे निर्माण किया जाए तो ऐसे भवन के स्वामी को अनेक कष्ट, दुखो का सामना करना पड़ता है। हमें वस्तुतः चार दिशााओं का ज्ञान है जिस ओर से सूर्य उदय होता है उस ओर पूर्व व जिस दिशा मे सूर्य अस्त होता है उसे पश्चिम कहा जाता है। अगर पूर्व की ओर मुंह करके खड़े हो जाए तो बायीं ओर उत्तर व दाहिनी ओर दक्षिण दिशा होती है।

वास्तु विज्ञान/शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाए भी होती है और यह चार है 1.ईशान 2.आग्नेय 3.नैऋत्य 4.वायव्य। इन विदिशाओं का भी वस्तु शास्त्र मे बहुत महत्व है समरागण सूत्र में दिशाओं/विदिशाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
1.पूर्वः- यह तो सभी जानते है कि सूर्य पूर्व दिशा में निकलता है और सुबह की किरणों मे जीवनदायी पोषक तत्व होते है, जिनकी शरीर व वनस्पति को बहुत आवश्यकता होती है। इस दिशा का स्वामी ‘इन्द्र’ हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। अतः एवं यह स्थान मुख्यतः प्रमुख व्यक्ति या पितृ स्थान माना जाता है अतः एवं इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है। यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है।
पूर्व दिशा का स्वामी ‘इन्द्र है। यह कालपुरूष है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टायलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची न हो, वरना संतान हानि का भय है इस दिशा का प्रतिनिधी ग्रह सूर्य है।
2.पश्चिमः- जब सूर्य अस्तांचल की ओर होता है तो वह दिशा पश्चिम कहलाती है। इस दिशा का स्वामी ‘वरूण’ है और यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है और वायु चंचल होती है। अतः यह दिशा चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन का दरवाजा पश्चिम मुखी है तो वहां रहने वाले प्राणियों का मन चंचल होगा। पश्चिम दिशा सफलता यश, भव्यता और कीर्ति प्रदान करती है।
पश्चिम दिशा का स्वामी ‘वरूण’ है और इसका प्रतिनिधि ग्रह ‘शनि’ है। यदि ऐसे गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी उसे गुप्तांग की बीमारी होगी।
3.उत्तरः- सूर्य के निकलते समय अगर उस ओर मुंह करके खड़े हो जाए तो हमारी बायीं तरफ की दिशा उत्तर दिशा कहलाती है या इसे ऐसे भी ज्ञात किया जा सकता है कि जिस ओर ध्रुव तारा है, वह दिशा उत्तर दिशा भी कहलाती है। इस दिशा का स्वामी ‘कुबेर’ है और यह दिशा जल तत्व को प्रभावित करती है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़ देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान करती है। उत्तर मुखी भवन इसकी दिशा का ग्रह ‘बुध’ है।
उत्तरी हिस्से में खाली जगह ने हो अहाते की सीमा के साथ सटकर और मकान हो और दक्षिण दिशा मे जगह खाली हो तो वह भवन दूसरो की सम्पति बन सकता है।
4.दक्षिणः- चढ़ते सूर्य की ओर मुंह करके खड़े होने से अगर बायीं ओर उत्तर हो तो निश्चित दायीं ओर दक्षिण दिशा होनी चाहिए। आम तौर पर दक्षिण दिशा को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण दिशा का यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है। यह धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार की बुराइयों को नष्ट करती है। दक्षिण भारत में तिरूपति मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है दक्षिण दिशा मे स्थित होते हुए भी यह मन्दिर बहुत समृद्धशाली एवं प्रसिद्ध है। इस मन्दिर की आय से दक्षिण भारत में कई शिक्षा संस्थान एवं अनाथालय चलते है जिस कारण यह बहुत प्रसिद्ध है। अतः दक्षिण दिशा उतनी बुरी भी नही है जितनी कि लोगो की धारणा है। भवन निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित या खुली होगी तो शत्रु भय का रोग प्रदान करने वाले होगी। इस दिशा का स्वामी यम है और ग्रह मंगल है।
5.ईशानः- पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग को ईशान दिशा कहा जाता है ईशान दिशा को देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया जाता है तो द्घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की जाती है। सूर्योदय की पहली किरणे भवन के जिस भाग पर पड़े उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान, बुद्धि आदि प्रदान करती है भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों को प्रदान करने के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है और प्रायः कन्या संतान प्राप्त होती है। अतः भवन में इस दिशा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी ‘रूद्र’ यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि ग्रह ‘बृहस्पति’ है।
6.आग्नेयः- पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है। इस कोण को अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका सीधा सम्बन्ध स्वास्थय के साथ है। यदि भवन की यह दिशा दूषित रहेंगी तो द्घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति को क्रोधित स्वभाव वाला व चिडचिड़ा बना देगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो यह संतान को कष्टप्रद होकर राजमय आदि देता है। इस दिशा का स्वामी ‘गणेश’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘शुक्र’ है। यदि आग्नेय ब्लॉक की पूर्वी दिशा मे सड़क सीधे उत्तर की ओर न बढ़कर घर के पास ही समाप्त हो जाए तो वह घर पराधीन हो जाएगा।
7.नैऋत्यः- दक्षिण व पश्चिम के मध्य कोण को नेऋत्य कोण कहते है। यह कोण व्यक्ति के चरित्र का परिचय देता है। यदि भवन का यह कोण दूषित होगा तो उस भवन के सदस्यों का चरित्र प्रायः कुलषित होगा और शत्रु भय बना रहेगा। विद्वानों के अनुसार इस कोण के दूषित होने से अकस्मिक दुर्द्घटना होने के साथ ही अल्प आयु होने का भी योग होता है। यदि द्घर में इस कोण में खाली जगह है गड्डा है, भूत है या कांटेदार वृक्ष है तो गृह स्वामी बीमार, शत्रुओं से पीडित एंव सम्पन्नता से दूर रहेगा। नेऋत्य का हर कोण पूरे घर मे हर जगह संतुलित होना चाहिए, अन्यथा दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा। इस दिशा का स्वामी ‘राक्षस’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘राहु’ है।
8.वायव्यः- पश्चिम दिशा व उत्तर दिशा को मिलाने वाली विदिशा को वायव्य विदिशा या कोण कहते है जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि यह कोण वायु का प्रतिनिधित्व करता है। यह वायु का ही स्थान माना जाता है। यह मानव को शांति, स्वस्थ दीर्घायु आदि प्रदान करता है। वस्तुतः यह परिवर्तन प्रदान करता है। भवन मे यदि इस कोण मे दोष हो, तो यह शत्रुता चपट हो तो, जातक भाग्यशाली होते हुए भी आनन्द नही भोग सकता है। यदि वायव्य द्घर मे सबसे बड़ा या ज्यादा गोलाकार है तो गृहस्वामी को गुप्त रोग सताएंगें। इस कोण का स्वामी ‘बटुक’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘चन्द्रमा’ माना गया है।

हम अपने पढ़ने वाले के ज्ञान के लिए बता दे कि पूजा स्थल पर मूर्तिया स्थापित करते समय उनका मुख किस किस दिशा में होना चाहिए। पूजा के लिये जैसा हमने पहले लिखा कि इशान कोण सर्वाधिक उत्तम माना गया है। क्योंकि उत्तर व पूर्व से आने वाली ऊर्जा मन व मस्तिष्क को एकाग्रचित रखती है जो कि पूजा पाठ के लिए बहुत जरूरी है। इसी प्रकार चित्र, मूर्ति या प्रतिमा का भी मुख दिशा विशेष की ओर रखने का अपना महत्व है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकेय, इन्द्र इत्यादि की मूर्तियों या चित्रों का मुख, पूर्व या पश्चिम की ओर रखना चाहिए। गणेश, कुबेर, षेडसी मातृकाओं का मुख सदैव दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए व हनुमान जी की मूर्ति या चित्र का मुख सर्वदा नैऋत्य दिशा की ओर होना चाहिए। इन सभी दिशाओं की ओर मुख निर्धारित करने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथ्य है ऐसा वास्तु शास्त्र का मानना है। यदि पूजा इत्यादि इशान दिशा में होगी तो उत्तर से बहने वाली चुम्बकीय तरंगे मानव के मन मस्तिक को एकाग्रचित रखती है और इसी से गति मिलेगी जो ध्यान व आत्मिक शांति के लिए बहुत जरूरी है।
वास्तु का मानव जीवन से सम्बन्धः
जिस प्रकार आज के युग में ज्योतिष मानव जीवन मे अपना स्थान स्थापित कर चुका है, उसी प्रकार आज के समय में वास्तु शास्त्र भी मानव जीवन मे महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चुका है। क्योंकि मानव जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नही है जो वास्तु शास्त्र से प्रभावित न हो। यह तो अब माना जाने लगा है कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हे रखने का तरीका जीवन को बना व बिगाड़ सकता है। कुछ समय पहले वास्तु शास्त्र का उपयोग सिर्फ धनाढ़्‌य व्यक्ति अपनी फैक्टरियों व कोठियां आदि बनवाने में करते थे, परन्तु आज एक साधारण व्यक्ति भी इस बारे में जानकारी रखता है और उसकी कोशिश रहती है कि वह अपना भवन वास्तु शास्त्र की दिशा निर्देश के अनुसार करवाए, ताकि भविष्य मे आने वाले दुःख तकलीफ का निवारण कर सके। वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों मे प्रकृति के साथ तालमेल बढ़ाने के कई तरह के उदाहरण मिलते है। वास्तु शास्त्र की यह कोशिश रहती है कि प्रकृति के नियमों के खिलाफ कोई काम न करे ताकि किसी प्रकार का कोई दण्ड न मिलें। वास्तु का एक उत्तम प्रमाण अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री बिल क्लिंटन है जो कि वास्तु शास्त्र का लोहा मानते हैं। अपने कार्यकाल मे उन्होने अपने ऑफिस में बैठने की दिशा बदल कर और अपने आवास को उत्तर दिशा वाली खिड़की में मोमबत्ती जला कर रखने से अपनी जीवन में सुखद अनुभूति महसूस की। इससे सिद्ध होता है कि वास्तु शास्त्र का प्रचलन पश्चिमी देशों में भी है तभी तो वहां के लोग सुख व शान्ति से रहते है। वास्तु का मनुष्य की राशी में ग्रहों से भी बहुत निकट का सम्बन्ध है। इसका विवरण हम नीचे अलग से दे रहे हैं।
वास्तु का ग्रहों से सम्बन्धः- जैसा कि हम पहले भी लिख चुके है कि वास्तु और ज्योतिष का चोली दामन का सम्बंध है इसमें कुछ भी झूठ नहीं है, क्योंकि ग्रहों का प्रभाव भवन निर्माण पर पड़ता है। जिस तरह मानव जीवन पर शुभ और अशुभ ग्रहों का प्रभाव पड़ता है, ऐसा ही प्रभाव निर्जीव वस्तुओं पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार चन्द्रमा के बढ़ने व घटने का प्रभाव समुद्र पर पड़ता है और इसी प्रभाव के कारण ज्वार भाटा उठता है। इससे सिद्ध होता है कि वास्तु जैसी निर्जीव वस्तुओं पर भी ग्रहो का प्रभाव पड़ता है और वह इन ग्रहों के प्रभाव से नही बच सकती। इस का उदाहरण इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि एक ही जगह पर दो पत्थर पड़े हुए हैं और जिस पर ग्रहों का शुभ प्रभाव है वह देवता की मूर्ति के लिए चुन लिया जाता है, परन्तु बुरे ग्रह के प्रभाव के कारण दूसरे पत्थर को सीढ़ियों के लिए भी जगह नही मिलती। इन दो उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि ग्रहों का प्रभाव निर्जीव वस्तुओं पर भी उसी प्रकार पड़ता है जिस प्रकार मानव जीवन पर पड़ता है। जैसा कि हम पहले लिख चुके है कि वास्तु एवं ज्योतिष के अनुसार आठ दिशाएं है और हर दिशा एक निश्चित ग्रह के अधीन होती है और उनका दिशाओं पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव रहता है। कौन-कौन सी दिशा में किस-किस ग्रह का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है यह हम निम्नलिखित सारिणी द्वारा बता रहे है।
ग्रहों के द्वारा द्घर के मालिक व परिवार के सदस्यों पर पड़ने वाले प्रभाव का विवरण इस प्रकार है।
1.सूर्यः- सूर्य क्योंकि पूर्व दिशा से निकलता है, इसीलिए उसका आधिपत्य इस दिशा में रहता है। जिस भवन का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की आरे होगा उस भवन में रहने वाले लोग श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले, ओजस्वी एवं समृद्ध होंगें। ऐसे लोंगों की वृद्धि अति तेज होगी और उनका लग्न सिंह होता है। ऐसे व्यक्तियों को कड़वी चीजे बहुत पसन्द होती है। अतः वह मेथी, करेला आदि सब्जियों के बहुत शौकीन होते है।
2.चन्द्रः- चन्द्र का स्वामित्व भवन के वायव्य दिशा में होता है। क्योंकि वायु कभी भी एक जगह नही ठहरती है, इसलिए जिस भवन का द्वार इस दिशा में होगा उस गृह का स्वामी व गृह में रहने वाले लोगों का स्वभाव चंचल, अस्थिर तथा भावावेश में बहने वाला होगा। ऐसे लोग सैर सपाटे, यात्रा व मौजमस्ती के शौकीन होते है। हरी सब्जियां उन्हे बहुत पसन्द होती है और नमकीन के बहुत शौकीन होते है।
3.मंगलः- मंगल उस भवन का स्वामी होता है जिसका द्वार दक्षिण दिशा मे हों। इस ग्रह का स्वामी कर्मनिष्ट, साहसी निडर एवं निर्भीक होता है। वह स्वभाव से कुछ चंचल भी होता है। ऐसे व्यक्तियों की पंसद गरिष्ट व मसालेदार भोजन होता है।
4.बुधः- जिस भवन का प्रवेशद्वार उत्तर दिशा मे होता है उसका स्वामी बुध को माना जाता है। बुद्ध अपने प्रभाव द्वारा ग्रह स्वामी को बुद्धिचातृर्य एवं विनोद प्रदान करता है, जिस कारण मानव अपने बुद्धिबल पर प्रसिद्धि पाता है और उसका कार्य क्षेत्र लेखन एवं साहित्य से जुड़ा होता है। ऐसे लोग नियमों एवं अनुशासन का बहुत सख्ती से पालन करते है। वह किसी भी भोजन को प्राथमिकता नहीं देते। उन्हे जो मिल पाता है उसी को संतोषपूर्वक ग्रहण कर लेते है।
5.गुरू(बुहस्पति):- गुरू या बुहस्पति अपना आधिपत्य उस भवन पर जमाते है जिस भवन का मुख्य द्वार ईशान दिशा में होता है। ऐसे भवन के गृहस्वामी का स्वभाव दयालु, धार्मिक व विचारशील प्रकृति का होता है। ऐसे पुरूष धर्म के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। जरूरत पड़ने पर वह साहस का संचार भी कर लेते है और दुश्मन से लोहा लेने को तैयार रहते हैं। अध्ययन, अध्यापन, भाषा एवं शिक्षा के क्षेत्रों मे खास रूचि होती है। ऐसे लोग सात्विक एवं शुद्ध भोजन को ही ग्रहण करते है।
6.शुक्रः- जिन भवनों का प्रवेश द्वार आग्नेय दिशा की ओर हो ऐसे गृहों का आधिपत्य ग्रह शुक्र होगा। क्योंकि शुक्र का प्रभाव मौज मस्ती व विलास का प्रतिनिधित्व करता है। अतः ऐसे गृहस्वामी विलासी व मौजमस्ती करने वाले होगे। ऐसे व्यक्ति कठिन दौर मे भी अपने मनोरंजन के लिए पर्याप्त समय निकाल लेते है और अपनी आमदनी का ज्यादा हिस्सा ऐसे कार्यो पर व्यय करते है। वे स्वभावतः कला प्रेमी होते है एवं रसिक प्रवृति के होने के कारण इनका पहनावा तड़क भड़क वाला होता है। सुन्दर दिखने के लिए ऐसे मानव अनेक उपक्रम करते है। इन लोगो की पसन्द दही, पनीर, एवं खट्टे पदार्थ होते है।
7.शनिः- शनि ग्रह स्वभाव से कठोर एवं गंभीर माने जाते है। अतः एव ऐसे भवन जिनका मुख पश्मिच दिशा में होता है और मुख्य द्वार भी इसी दिशा में हो तो उसका स्वामी शनि को माना गया है। इस ग्रह के प्रभाव से गृहस्वामी ठहराव, गंभीरता से विचार करते है और नफे नुकसान को ध्यान मे रखकर कार्य करते है। अपने मिलने जुलने वालो मे ऐसे लोगों की छवि गंभीर व्यक्ति वाली बन जाती है। ऐसे लोग गरिष्ट, तले पदार्थो व ठंडे पेयजल के अधिक शौकीन होते है।
8.राहुः- राहु का आधिपत्य नैऋत्य दिशा मे होता है और जिस भवन का मुख्य द्वार इस दिशा मे हो तो इस ग्रह का उस पर पूर्ण प्रभाव होगा। राहु क्योंकि तामसी प्रवृति का माना गया है अतः एव ऐसे भवन का गृहस्वामी मूलतः तामसिक, द्घमण्डी, लुच्चा एवं धूर्त होगा। गुस्सा करना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन जाता है। मांस, मछली, गरिष्ट एवं बासी भोजन इनकी प्रथम पसन्द होती है।
कोई ग्रह विशेष अपना प्रभाव किस प्रकार रखता है यह उपरोक्त व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है। कई लोगों के मन में भ्रम उठता है कि अगर किसी भवन के एक से अधिक प्रवेश द्वार भिन्न-भिन्न दिशाओं मे हो तो उस पर किस ग्रह का प्रभाव होगा। ऐसे लोगो की जानकारी के लिए बता दे कि यदि किसी भवन के तीन द्वार का प्रभाव हों तो उनका मिला जुला प्रभाव गृह स्वामी पर पड़ेगा। इसके अलावा खिड़कियों एवं रोशनदानों की स्थिती भी अपना प्रभाव दिखाती है। अगर दिशाओं के ग्रह प्रभावशाली एवं ताकतवर है तो वह द्घर मे सुख समृद्धि एवं शांति पूर्वक माहौल बनाकर रखेगें और अगर उनका प्रभाव क्षीण है और नीच प्रभाव में है तो इसके उल्ट असर दिखाएंगे।
उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि ज्योतिष वास्तु के साथ-साथ चलता है और इनका आपस मे गूढ़ संबंध है। यह दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं।

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