जनता के हितों के लिए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के वकील हड़ताल पर, 24 जुलाई से हड़ताल पर हैं पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के वकील

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हरियाणा/अम्बाला, जयबीर राणा थंबड : पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के अधिवक्ता एडवोकेट ललित मोहन बराड़ा ने एक भेंट में बताया की पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के वकील गत 24 जुलाई से हड़ताल पर हैं। उनकी इस हड़ताल के पीछे का कारण हरियाणा सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्बारा जारी किया गया वो नोटिफिकेशन है जिसके माध्यम से एक ट्रिब्यूनल का गठन करके हरियाणा के सभी सरकारी कर्मचारियों के मुकद्दमों के निपटारे का अधिकार हाई कोर्ट और निचली अदालतों से छीन कर उस ट्रिब्यूनल को दे दिया गया है। उन्होंने बताया कि इस ट्रिब्यूनल के जज के तौर पर हाई कोर्ट के एक माननीय रिटायर्ड जज की नियुक्ति भी कर दी गई है।
उन्होंने कहा कि पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के वकीलों द्वारा जारी हड़ताल पर आम जनता के मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर सरकार के इस निर्णय का वकील विरोध क्यों कर रहे हैं। इसमें गलत क्या है। क्या उन्हें यह मलाल है कि इससे हाईकोर्ट के वकीलों का काम छिन कर करनाल के वकीलों के पास चला जाएगा जहां यह ट्रिब्यूनल स्थापित किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि वकीलों के एक हिस्से का, चाहे वो चण्डीगढ़ के वकील हों या करनाल के, यह भी एक सरोकार हो सकता है। लेकिन वास्त़व में यह मुद्दा वकीलों के रोजगार के सरोकार से कहीं बड़ा और संजीदा है। यह मुद्दा हमारी न्याय प्रणाली के बुनियादी उसूलों, उसकी स्वतन्त्रता, संविधान की मूल सरंचना और नतीजतन आम जनता के हितों से सीधा जुड़ा हुआ है।
एडवोकेट ललित मोहन बराड़ा ने कहा कि हम सब जानते हैं कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का बटवारा हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। न्यायपालिका स्वतंत्र तौर पर काम करती है और उसके कार्य में कार्यपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। हाई कोर्ट के न्यायाधीश, जो संविधानिक आथोरिटी हैं, ही नहीं बल्कि जिला और तहसील स्तर पर काम कर रहे न्यायाधीशों के काम में सरकार सीधे कोई दखल नहीं दे सकती। उनके तबादले तक का अधिकार केवल हाई कोर्ट के पास है सरकार के पास नहीं।
लेकिन इसके उल्ट ऐसे ट्रिब्यूनलों और फोर्मज में बतौर जज रिटायर्ड जजों और सरकारी अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है जो ‘इन सर्विस’ जजों के मुकाबले आधे स्वतन्त्र भी नहीं होते। इन नियुक्तियों में सरकार की पूरी दखलअंदाजी होती है।
इसलिये रैगुलर अदालतों के अधिकार क्षेत्र से अलग अलग प्रकार के विवादों को निकालकर एक के बाद दूसरे ट्रिब्यूनल और फोर्म गठित करने का यह रूझान बेहद खतरनाक है। ऐसे बहुत से फोर्म जो पहले से अस्तित्व में हैं उनमे से ज्यादातर की परफारमेंस पर जितना कम बोला जाए उतना ही ठीक है। कन्जयूमर फोरमज इसका एक उदाहरण हैं। एडवोकेट ललित मोहन बराड़ा ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों से सम्बन्धित मामलों में तो विरोधी पक्ष शत प्रतिशत खुद सरकार ही होती है। ऐसे में उनके विवादों को अदालतों से छीन कर ऐसे ट्रिब्यूनल को सौंप देना तो वैसे भी कहां की अक्लमंदी है।
इन ट्रिब्यूनलों और फोर्मज की बहुतायत से न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक दूसरे तरीके से भी प्रभावित होती है। वो इस तरह कि रिटायरमैंट के बाद पद की लालसा में सरकार से नजदीकी की चाह कई ‘इन सर्विस जजों’ के काम और स्वतन्त्रता को भी प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इसके परिणाम और भी घातक होंगे एडवोकेट ललित मोहन बराड़ा ने कहा कि सरकार के अड़ियल रवैया के खिलाफ वकीलों का विरोध प्रदर्शन तब तक जारी रहेगा जब तक कि सरकार अपना अध्यादेश वापस नहीं लेती।

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